हास्य - परिहास
पंडित जी मेरे मरने के बाद , इतना कृष्ट उठा लेना
मदिरा जल की जगह , ताप्ती का जल पिला देना
:- रामकिशोर पंवार
कल रात जब मैं रायपुर से छत्तिसगढ एक्सप्रेस से बैतूल वापस लौटा तो रात के ढाई बज चुके थे। ऐसे समय जब रात आधी ज्यादा बीत जाये तब नींद कहाँ आती है। रात को चाय पीकर जब मैने टीवी चालू की तो मेरी पंसीदा फिल्म रोटी - कपडा और मकान आ रही थी। यह फिल्म उस दौर की है जब मेरी शादी भी नहीं हुई थी। इसलिए जवानी के दिनो की मनोज कुमार की इस फिल्म की अभिनेत्री जीनत अमान मेरे दिल के किसी कोने में भी हलचल मचाने लगी थी। उस समय का लोकप्रिय गाना मैं ना भूलूंगा --- मैं ना भूलंगी --- इस गीत के आधी रात को बजने के बाद मुझे अपने सपनो की जीवन संगनी की परिकल्पना किसी चलचित्र की तरह मेरी आँखो के पटल के सामने चलने लगी। मैं उस फिल्म का दुसरा गीत को भी कभी नहीं भूल सकता क्योकि उस गीत ने आज के इस समय में मेरी सोच में जमीन आसमान का परिवर्तन ला दिया। उस समय के रामू में और आज के रामू जमीन आसमान का इसलिए फर्क आ गया क्योकि वह उम्र थी गंगाजल की जगह मदीरा पीने की लेकिन पता नहीं क्योकि उस न तो गंगा मिली न शराब और रह गये यूँ ही प्यासे के प्यासे----- आज जब लोग चाहते कि मैं गंगाजल की जगह शराब पीऊ तो शराब पीने की इच्छा न तब हुई और न अब---- आज तो ऐसा लगता है कि हम मरने से पहले ही अपनी वसीयत कर जाये कि पंडित जी मेरे मरने के बाद मेरे मँुह में मदिरा जल की जगह ताप्ती जल पिला देना। आज लोग ताप्ती की जगह मदिरा को पीने में अपनी प्रतिष्ठा समझते है। पता नहीं लोगो को क्यूँ शराब - शबाब - कबाब का चस्का लग गया है जो कि मृत्यु की पहली सीढ़ी है। जीवन एक चक्र है जिसमें लोगो का आना - जाना एक नियती का चक्र है जिसके तहत जो आया है उसे एक न एक दिन जाना है। मनोज कुमार की उस फिल्म की एक नायिका अरूणा ईरानी पर फिल्माया गया वह गाना आज के पंडित जी के ऊपर सटीक बैठता है क्योकि कहना नहीं चाहिये कि अधिकांश पंडित जी अपने मँुह मे गंगा जल कीह जबह मदीरा जल का ही सेवन करने लगे है। मेरे दोस्त तो दूर मेरे दुश्मन भी यही चाहत पाले है कि मैं भी किसी भी तरह से शराबी हो जाऊ और उनकी तरह यहाँ - वहाँ पर कटोरा लेकर दारू मांगता फिरू लेकिन मेरे लिए यह सब इसलिए मुनकीन नहीं क्योकि बचपन से ही मैने शराब से बिडगते परिवारो को और अपने नाते - रिश्तेदारो के हश्र को देखा है। मैं नहीं चाहता कि मेरे बारे में कम से कम लोग यह तो नहीं कहे कि वो देखो साला दारू कुटट दो पैग छाप पत्रकार जा रहा है जिससे अध्धी - पौवा देकर जो चाहे छपवा लो...... आज की पत्रकारिता में लोगो की भीड बढने का वज़ह भी कुछ हद तक फ्री की शराब और कबाव भी है। लोगो जब बिना हाथ पांव चलाये रोज कोई न कोई बकरा दारू पिलाने के लिए या फिर नरेन्द्र जैसा कथित छपास रोग की पीडा से ग्रसित व्यक्ति मिल जाये तब तो उसकी हर रात रंगीन होगी। आज बैतूल जिले के पत्रकारो को रोज ताप्ती जल पीने की या उसमें नहाने की नसीहत देना बेकुफी होगा क्योकि उसे तो सुबह - दोपहर - शाम को बस कोई भी मुज्जी चाहिये। बैतूल शहर में ही नहीं गांवो में भी पागलो की और मुर्खो की कमी नहीं है। एक ढुंढो - दस हजार मिलेगें। आज बैतूल जिले में ही नहीं दिल्ली - भोपाल और गांव - गांव में पेपर बेचने वाले हाकर पत्रकार बन गये स्थिति तो यह आने वाली है कि हम कैमरा पकडने वाला कैमरामेन की जगह न्यूज चैनल का पत्रकार मिलेगा जिसके एक सेकण्ड का पैसा नहीं बल्कि रूपैया होगा वह भी दस - पाच में न होकर हजारो में होगा। आज बैतूल जिले की पत्रकारिता को आवश्क्यता इस बात की है कि जिले भर के पत्रकारो को पहले खुब शराब पिला कर उन्हे ताप्ती में तब तक डुबाये रखना है जब तब की वे शराब और शबाब से तौबा न कर ले। मैं तो यही चाहता हँू पता नहीं कितने लोग मेरी नसीहत पर खरे उतरते है। अंत में माँ ताप्ती सबका भला करे पीने वाले का भी और पिलाने वाले का भी सबसे बाद मे मेरे जैसे नहीं पीने वाले का भला का जिससे की समाज का कथित सुधार हो सके। एक बार फिर उस रोटी - कपडा और मकान के दर्द को परिभाषित करने वाली फिल्म में व्यक्त की गई मनोज ऊर्फ भारत कुमार की पीडा को मैं अपनी पीडा समझ कर अपनी वसीसत करना चाहता हँू कि मरने के बाद उसके साथ लोग जो करना है वह करे लेकिन यदि संयोग से कोई पंडित उस अंतिम यात्रा में साथ रहे तो वह इतना कृष्ट जरूर करे कि मेरे मँुह में ताप्ती जल जरूर हो।
Saturday, December 25, 2010
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