Saturday, December 25, 2010

Surya Mandir


                                                                    रहस्य
                                                 पहाडिय़ो में छुपा सूर्य मंदिर
                                           सत्यकथा : - रामकिशोर पंवार ''रोढ़ावाला''
भगवान भास्कर जब सुबह अपने रथ पर सवार को जाने के लिए अपने शयन कक्ष से बाहर नहीं निकले तो उनके पूरे महल में चहल - पहल शुरू हो गई. माता संध्या ने भगवान भास्कर से कहा कि '' हे प्रभु आज क्या अपने रथ पर सवार होकर धरती की परिक्रमा करने का इरादा नहीं है क्या....!'' अपने शयन कक्ष में असलाई निंद्रा में उन्होने संध्या से पुछा ''संध्या क्या चांद ने अपनी परिक्रमा पूरी कर ली.....! , तारो की गणना क्या कहती है....!  मुझे वास्तव में अपने स्वर्ण रथ लेकर सृष्टि की परिक्रमा पर निकल जाना चाहिये .......!'' सूर्य नारायण के कई तरह के सवालो के उत्तर में भगवान विश्वकर्मा की पुत्री माता संध्या ने जवाब देने के बजाय अपनी प्रतिछाया सूर्य नाराणय की दुसरी भार्या माता छाया को बुलाया और वह उससे बोली ''अब छाया तुम ही भगवान दिवाकर को समझाओ की उनके जाने का समय निकला जा रहा या नहीं......!'' भगवान सूर्य नारायण की दोनो जीवन संगनी के बीच हो रहे वार्तालाप को सुन रही भगवान भास्कर की छोटी बिटिया ताप्ती अचानक हस पड़ी और कहने लगी ''माँ जो इस सृष्टि के सबसे बड़े देवता है वे तक भगवान सूर्यनारायण की प्रतिक्षा कर रहे है क्योकि बाबा भोलेनाथ को भी तो भोर होते ही अपने शिव भक्तो के अभिषेक का इंतजार रहता है.....!'' ताप्ती की बात पर सूर्य पुत्र शनि ने अपनी छोटी बहन ताप्ती को समझाया कि  ''बहना तू अभी छोटी है.... यदि जगतपिता ब्रहमा द्धारा रचित विधान को अपना ही पिता नहीं मानेगा तो भी पूरी सृष्टि में महाप्रलय आ जायेगा और फिर कहीं न कहीं सारा दोष मेरे ऊपर ही आ जायेगा क्योकि लोग तो कहना नहीं भूलेगें कि शनिदेव की दृष्टि पड़ी है तभी तो सब कुछ हो गया ......! , ऐसे में हम भगवान भास्कर की सभी संतानो को चाहिये कि हम अपनी माताओं के द्धारा किये जा रहे प्रयासो पर किसी भी प्रकार की टीका - टिप्पणी न करे और जैसा होना है उसे होने दे......!'' अपने पुत्र की बातो को सुन कर मंद - मंद मुस्कराये भगवान भास्कर ने शनि से कहा कि ''बेटा मुझे आज महसुस हुआ कि मैने तुझे न्याय का देवता बनवा कर कोई गलती नहीं की , क्योकि सही और गलत का फैसला तो तुझे ही करना है ..... , और उसी के हिसाब से सभी को अपने - अपने कर्मो का फल भोगना है.....!'' अपने शयनकक्ष से स्नान - ध्यान आदि से निवृत होकर जैसे ही भगवान भास्कर अपने बारह अश्व  की सवारी वाले स्वर्ण से बने भास्कर रथ पर सवार होने के लिए अस्तबल में पहुंचे तो उन्होने देखा कि वहां पर उनका बारह अश्वो रहित स्वर्ण रथ नहीं था. भगवान भास्कर अपने ही महल से पहली बार इस तरह लापता हुये अपने स्वर्ण रथ को लेकर चिंता में पड़ गये. इधर धरती - आकाश - बैकुंठधाम यहाँ तक की स्वर्ग में भगवान भास्कर के आने की प्रतिक्षा कर रहे देवी - देवता , नर - नारी - किन्नर , दैत्य - दानव , पशु - पक्षी , वनस्पति , पेड़ - पौधे - जल - थल सभी को बैचेनी होना शुरू हो गई........! अब लोग इसे महाप्रलप का समय से पहले से आने की भविष्यवाणी समझ कर अभी से  चिंताग्रस्त हो गये. भगवान भास्कर को चिंता में देख कर सूर्यपुत्र शनि ने अपनी नज़र घुमाई तो उसे दिखा कि एक दानव भगवान भास्कर का बारह अश्वो का रथ लिए भागे जा रहा था. उसने यह बात अपने पिता को बताई तो भगवान भास्कर और भी चिंता में पड़ गये. दोनो ही पिता पुत्र उस राक्षस की ओर दौड़ पड़े . पिता - पुत्र को इस तरह एक दुसरे के पीछे दौड़ता देख भगवान भोलेनाथ चिंता में पड़ गये. उन्हे लगा कि एक बार फिर कहीं पिता - पुत्र में कोई विवाद तो नहीं हो गया .....! इसलिए भगवान भास्कर बिना रथ के ही अपने पुत्र शनि के पीछे भागे जा रहे है. दोपहर होने को थी ऐसे में आखिर सूर्य पुत्र शनि ने उस राक्षस को  रोक लिया और उससे भगवान भास्कर का रथ वापस लौटाने को कहा लेकिन राक्षस ने शनिदेव की चेतावनी नहीं मानी. अपने किले से एक राक्षस को बारह अश्वो के रथ को देख कर राजा इल की इच्छा हुई कि वह उस राक्षस से रथ छीन ले.....! बस इसी उधेड़बुन में राजा इल ने भगवान भास्कर एवं शनिदेव को देखे बिना ही अपनी मंत्र शक्ति चला दी. मंत्र शक्ति के प्रभाव पड़ते ही वह बारह अश्व रहित स्वर्ण रथ पत्थरो का हो गया. जब राजा इल उस रथ तक पहुंचे वहां पर देवी - देवताओं की लम्बी - चौड़ी जमात एकत्र हो गई थी. रथ को पत्थर को होता देख राक्षस वहां से भाग खड़ा हुआ. अब भगवान भास्कर चिंता में पड़ गये कि इस पत्थरो के रथ पर वे भलां कैसे पूरी सृष्टि की परिक्रमा लगा पायेगें. शनिदेव ने राजा इल से कहा कि वह जिस मंत्र विद्या से रथ को पत्थरो का किया है उसी मंत्र विद्या से इसे अपने मूल स्वरूप में कर दे लेकिन राजा इल ने हाथ जोड़ लिये और वह कहने लगा कि ''हे अदिति नंदन मुझे किसी भी चल - अचल वस्तु को पत्थर का बनाने का मंत्र मालूम था .....! अब इसे मैं क्या दुनिया की कोई भी मंत्र शक्ति अपने मूल स्वरूप में नहीं ला सकती ......!  ऐसे में हे प्रभु मेरी तपस्या और भगवान भास्कर के प्रति समपर्ण को देख कर आपसे एक प्रार्थना करना चाहता हँू कि भगवान भास्कर एक बार इस रथ में बैठ जाये ताकि मैं रोज अपने महल से इस पहाड़ी पर मेरे द्धारा बनवाये जाने वाले सूर्य मंदिर में भगवान भास्कर आपकी दिन की भरी दोपहर में पूजा - अर्चना कर सकूं ....'' इस बीच भगवान विश्वकर्मा शिव आदेश से दुसरा बारह अश्वो रहित स्वर्ण रथ का निमार्ण कर आ चुके थे. भगवान विश्वकर्मा के साथ पूरा सूर्य परिवार था. भगवान भास्कर ने राजा के आग्रह को स्वीकार किया और स्वर्ण से पत्थर का बने रथ पर जैसे ही बैठे पूरे आकाश में उनका तेज प्रताप जगमगा उठा. धरती - आकाश - शिवलोक , बैकुंठधाम , स्वर्ग लोक से सभी देवी - देवताओं ने भगवान भास्कर पर फूल बरसाने शुरू कर दिये. इस बीच नारायण भक्त देवऋषि नारद भी अपनी वीणा के साथ उस पहाड़ी पर आ गये. जहां पर पत्थरो का वह रथ था जिस पर भगवान भास्कर कुछ पल के लिए बैठे हुये थ्से. देवऋषि नारद ने राजा इल से कहा कि ''राजन तुम्हारे कर्मो का ही फल है कि आज भगवान भास्कर इस धरती पर किसी स्थान पर नही बल्कि एक ऐसी पहाड़ी पर विराजमान हुये जिसको तुम्हारे किले के चारो दरवाजो से देखा जा सकता है. .....''  देवऋषि की वाणी का सभी ने स्वागत किया. भगवान भास्कर ने अपने दुसरे रथ पर सवार होकर सृष्टि की परिक्रमा शुरू कर दी लेकिन उनके मन में इस बात का संशय बना रहा कि इतनी पहरेदारी के बीच उनके महल तक उनकी तपन की बिना परवाह किये बिना उनका रथ चोरी करने का र्दु:साहस भलां कैसे हो गया. भगवान भास्कर को चिंताग्रस्त देख कर देवऋषि नारद आये और वे कहने लगे ''भगवान भास्कर आपकी चिंता का प्रमुख कारण आपके परिवार से ही जुड़ा है..... , जब - जब आप पिता - पुत्र आमने - सामने होगें तब - तब  इस संसार में ऐसी लीलाए भगवान लीलाश्वर याने उमापति महादेव रचते रहेगे......!'' वह जो रथ को चुराने वाला कोई और नहीं भगवान नीलकंठ से ही सिद्धी प्राप्त एक असुर है जिसका नाम सुन कर आपको हैरानी होगी. भगवान भास्कर की जिज्ञासा को शांत करते हुये नारद जी  बोले ''भगवन यह कोई नहीं बल्कि स्वंय आपके अहंकार से उत्पन्न राक्षस सूर्यासूर है जिसने बरसो आपकी ही पुत्री माँ ताप्ती के तट पर बारहलिंग नामक देव स्थान पर तपस्या करके भगवान शिव को प्रसन्न किया और उनसे वरदान मांगा कि ''हे प्रभु मैं कुछ ऐसा कर जाऊ कि यह सृष्टि मुझे याद रखे .......!'' भगवान शिव ने बिना कुछ सोचे अपने भक्त को आर्शिवाद दे डाला. भगवान शिव के आर्शिवाद एवं आपकी पुत्री ताप्ती के निर्मल जल से भीगा होने के कारण उसे आपकी तपन का असर नहीं हुआ और वह आपका स्वर्ण रथ चुरा कर ले गया. अब प्रभु आपको याद होगा कि आपके भक्त राजा इल ने अपने राज्य में पड़े सुखे और आकाल से निपटने के लिए किले के सामने बनवाये उस तालाब में अपने पहले पुत्र और वधु को हवन की बेदी पर बैठाला था. उस सूर्य उपासना से ही तालाब में चारो ओर से जलधारा बह निकली और राजा के पुत्र और पुत्रवधु की जलबलि चढ़ गई. आपने ही राजा से कहा था कि ''हे राजन मैं तुम्हारे त्याग और तपस्या तथा मेरे प्रति समपर्ण से प्रसन्न हूं , चाहो तो इच्छानुसार वर मांग सकते हो......!'' अपने इकलौते पुत्र और पुत्रवधु की मौत से शोकाकुल राजा ने उस समय आपसे कुछ नहीं मांगा लेकिन उसने अपनी सूर्य उपासना जारी रखी. उसे नहीं पता था कि जो राक्षस आपका रथ लेकर भाग रहा है वह सूर्यासूर है तथा उसके पीछे भगवान शिव की शिवलीला है जो इस बात का संकेत देती है कि भक्त और भगवान एक समान . राजा तो स्वंय चाहता था कि वह उस राक्षस से आपका रथ छीन ले लेकिन किले से उस पहाड़ी तक जाने में उसे काफी समय लग जाता इसलिए उसने अपनी मंत्र शक्ति का उपयोग करके पूरे रथ को ही पत्थर का बना डाला. रथ को पत्थरो का बनता सूर्यासूर भाग खड़ा हुआ. अपने रथ का पीछा करते भगवन भास्कर आप और आपके पुत्र शनिदेव जब इस पहाड़ी तक पहुंचे राजा इल भी वहां पहुंच चुका था. राजा की इच्छानुसार प्रभु आपको दोपहर को एक पल के लिए उस पत्थरो के रथ पर बैठना पड़ा क्योकि इस संसार में पृथ्वी पर आज तक किसी भी स्थान पर भगवान सूर्य आपका स्वर्ण रथ वाला मंदिर नहीं है. जिस पर आप स्वंय हर दिन दोपहर को एक पल के लिए आकर विराजमान होने के बाद चले जाते है. इस मंदिर को लोग सदियो तक पूजते रहेगें लेकिन एक दिन यह मंदिर अपने आप ही अपने मूल स्वरूप को खो देगा.
                दादी और नानी से कई बार इस कहानी को सुन चुका था कि मेरे ही जिले की किसी पहाड़ी पर सूर्य मंदिर है जिसने भगवान भास्कर एक पल के लिए आकर विराजमान होने के बाद चले जाते है . बचपन की सुनी कहानी को मेरे दिमागी चित्रपटल ने आज तक जिंदा रखा था. मैने सबसे पहले खेडला किले के आसपास की पहाडिय़ो की खाक छानने के बाद मैं आगे की ओर बढ़ता गया. मुझे महिने नहीं बल्कि ढाई - तीन साल लग गये. जवानी के दिनो में मैने सत्यकथा में भी सूर्यमंदिर की कहानी पढ़ी थी लेकिन लेखक ने ऐसा भ्रम का जाल बिछाया कोई उस ठौर तक जा ही नहीं सका. हालाकि उस लेखक की कहानी का केन्द्र भी वही सूर्य मंदिर था जिसे मैं खोज रहा था. आज जब मैं उस पहाड़ी के करीब पहुंचा तो मैने कई आसपास के कई राह चलते ग्रामीणो से पुछा कि ''इस गांव की किस पहाड़ी पर सूर्य मंदिर है लेकिन पूरे गांव में कोई भी मेरे सवाल का जवाब नहीं दे सका......!'' अचानक कुछ देर रूकने के बाद मैं उस पहाड़ी की ओर अकेला ही चल पड़ा . पूरा जंगल सुनसान कंटीली झाडिय़ो से भरा बियावान था . मुझे मेरी मंजिल तक पहुंचने के लिए कोई रास्ता नहीं सुझ रहा था. कुछ दूर चढऩे के बाद जब थकान के मारे जब  मेरा दम भरने लगा तो मैं एक स्थान पर बैठ गया. आबादी से कोसो दूर उस पहाड़ी पर मुझे एक बाबा दिखाई दिया . जब मैने उससे सूर्य मंदिर का पता पुछा तो वह बोला ''पत्रकार हो या कहानीकार .......!'' मैं अपने बारे में बाबा से सच्चाई जानने के बाद भौचक्का रह गया. मुझे लगा कि सूर्य मंदिर के चक्कर में मैने बैठे ठाले मुसीबत मोल ले ली है. बाबा बोला ''बेटा मंदिर को ही देखेगा या उसके पीछे की कहानी भी जानेगा .....!'' और फिर वह बाबा ऊपर बताई गई कहानी को सुनाते हुये मुझे ठीक भरी दोपहर को उस स्थान पर ले गया जहां पर सूर्य भगवान का वह पत्थरो में बदला रथ और मंदिर था. पहाड़ी पर बने सूर्य मंदिर की कोई छत नहीं थी . बस चारो ओर परकोटे के खम्बे गड़े थे. सूर्य भगवान की प्रतिमा एक स्थान पर लेटी हुई थी. पूरा रथ जो पत्थरो का बना था उसके सारे पत्थर आसपास के गांव के लोग निकाल कर ले जा चुके थे. मंदिर में देखने को कुछ भी नहीं था लेकिन जैसे ही सूर्य सर के ऊपर आता है अचानक उस स्थान पर सूर्य का तेज इतना बढ़ जाता है कि ठंड हो बरसात इसंान पानी से नहा लेता है. कुछ पल बाद स्थिति ज्यों की त्यों हो जाती है. बाबा ने ठीक उसी समय लेटे हुये भगवान भास्कर की प्रतिमा की पूजा की और वे अचानक मेरी आंखो से ओझल हो गये. सुनसान पहाड़ी पर मेरे अलावा कोई नहीं था. डर के मारे मैं थर - थर कांप रहा था. दिन में किसी भूतहा महल या खोली में जाने के बाद होने वाली स्थिति का मुझे आभास होने लगा. मैने अपनी अराध्य माँ काली को और माँ ताप्ती को संग - संग याद किया और उल्टे पांव पहाड़ी से नीचे उतरने लगा. मुझे पहाड़ी चढऩे से ज्यादा समय उतरने में लग रहा था. थोड़ा सा भी अनबेलेंस हो जाता तो सीधे खाई में जा गिरता लेकिन मैने लताओं और पेड़ो की टहनियों को पकड़ कर नीचे उतरने का प्रयास किया. शाम होने को आई थी. जब थका - हारा मैं उस गांव में पहुंचा तो पूरा गांव मुझे नफरत से देख रहा था. गांव का एक बुर्जग बोला ''बेटा क्यों हमारी - तुम्हारी जान के दुश्मन बने हो ....... उस पहाड़ी पर जाने के बाद ही गांव में कोई न कोई आफत आती है......!'' मैने उस बुर्जुग से पुछा ''बाबा कैसी मुसीबत और कैसे जान पर आफत ......!'' वह बोला तुम जिस बाबा के साथ उस पहाड़ी तक पहुंचे हो वह कोई और नहीं बल्कि उस सामने वाले किले का राजा इल ही है जो बरसो से अपने अराध्य भगवान सूर्य नारायण की भरी दोपहर में पूजा करने जाता है . जबसे उस मंदिर के पत्थर चोरी होने लगे तबसे पूरे गांव पर मुसीबतो का पहाड़ टूट पड़ा है. समय के काल चक्र ने उन लोगो की जाने ले ली है जिसने उस मंदिर के पत्थरो से बने रथ के पत्थरो को निकाल कर विदेशियो को बेचा डाला था . पिछली बीस सालो में आसपास के कई गांवो के कई नौ जवान लोभ और लालच की बेदी पर बलि चढ़ गये है . पहली बार पत्थर लाकर देने के बाद जब भी वह दुसरी बार उस पहाड़ी पर गया है वहां से जिंदा नहीं लौटा है. एक - एक करके इस गांव के हर घर का एक छोरा उस मंदिर के पत्थरो के चक्कर में काल के गाल में समा जाता है. वह राजा आज भी रोज दोपहर को साधु - बाबा - संत  के भेष में मंदिर में अपने भगवान की पूजा करने जाता है. जिसकी नीयत साफ हो उसे वह पहाड़ी तक ले जाता है लेकिन जिसके मन में लोभ लालच आया समझो उसकी जान चली जाती है. आज पिछली बीस पीढिय़ों से हम इस मंदिर के श्राप का दण्ड भोग रहे है. जब भी कोई गांव में आने के बाद मंदिर का पता पुछता है तो हमें ऐसा लगता है कि कहीं यह भी उस मंदिर के पत्थरो के चक्कर में अपनी जान न गवां बैठे.  जब मैने उसे बताया कि ''मैं लेखक हूं कहानी लिखता हू , इस सूर्य मंदिर को लेकर भी कहानी लिखना चाहता हँू......!'' मेरी बात सुन कर वह बुढा व्यक्ति बोला ''बेटा मैं पहले ही कह रहा था कि क्यों हमारी जान के दुश्मन बने बैठे हो ......! , तुम कहानी लिखोगें उसे पढ़ कर लोग आयेगें और फिर वही होगा जो अभी तक होता आ रहा था........!'' मैने उस व्यक्ति के साथ पूरे गांव को यकीन दिलाया कि मैं अपनी कहानी में कहीं पर भी आपके गांव का नाम और पता नहीं बताऊंगा......... मेरी बात का उन लोगो पर असर हुआ. बातचीत में पता भी नहीं चला कि कब रात हो गई. जब मै अपनी मोटर साइकिल लेकर जाने लगा तो गांव वालो मे मुझे रोक लिया और वे कहने लगे कि रात का सफर दिन के सफर से ज्यादा खतरनाक है. गांव वालो के आग्रह पर मैं रात तो वहीं रूक गया. रात में गांव के लोगो ने मुझे वे मंदिर के पत्थर दिखाये जिसके चक्कर में उनके बच्चे बेमौत मारे गये थे. उन पत्थरो को देखने के बाद कहीं से कहीं तक ऐसा नहीं लगता था कि ए पत्थर है या स्वर्ण ....... गांव वालो की बताये किस्से कहानी सुन कर मुझे कब आंख लग गई और मैं सो गया. सुबह जब नींद खुली तो मैने स्वंय को अपने ही घर के बिस्तर पर पाया. मेरी हालत देख कर मेरा पूरा परिवार मेरे चारो ओर बैठा था. मेरे दोनो बेटो और पत्नि का रो रोकर बुरा हाल था. बाबू जी और मां भी अपनी आंखो के आंसुओ को रोक नहीं पा रहे थे. मेरे लाख पुछने पर जब किसी ने कुछ नहीं बताया तो मैं बिस्तर से उठा और अपनी दैनिक क्रियाओं से निवृत होने के बाद मैने अपने बड़े बेटे से कहा कि ''बेटा गाड़ी बाहर निकाल आज शनिवार है ताप्ती नहाने चलना है......!'' घर के लोगो के मना करने के बाद भी मैं ताप्ती नहाने के लिए निकल गया. माँ सूर्य पुत्री ताप्ती में स्नान - ध्यान और पूजा करने के बाद जब मैं वापस लौटने लगा तब  मेरे बेटे ने बीती रात वाली कहानी मुझे ्रबता ही दी. उसके अनुसार  ''पापा आज आप सपने में किसी पहाड़ी पर सूर्य मंदिर को देखने के लिए जा रहे थे और इधर बिस्तर पर बड़बड़ाते जा रहे थे .......!'' आपकी हालत देख कर ही सभी लोग नींद से जाग कर आपके जागने का इंतजार करने लगे. जब घर पहुंचा तो घर पर नाते - रिश्तेदारो की लम्बी चौड़ी भीड़ लगी थी. कुछ लोग एक बाबा को पकड़ लाये थे . बाबा को देख कर मैं दंग रह गया क्योकि यह तो वही बाबा था जो मुझे मंदिर तक ले गया था. मेरी हालत देख कर बाबा ने मुस्काराते हुये मेरे हाथ में एक पत्थर का टुकड़ा दे दिया और उसे तब तक दबाये रखने को कहा जब तक कि वह चला न जाये. इशारे ही इशारे में बाबा ने मुझे सख्त चेतावनी भी दे डाली कि  मैं उसके बारे में किसी को कुछ नहीं बताऊ ......!'' बाबा के जाते ही जैसे में अपनी हथेली खोली तो मैने देखा कि वह उसी सूर्य मंदिर के रथ के पहिये का एक छोटा सा हिस्सा था जो इस कथा के काल्पनिक न होने की कहानी बयां करता है. आज इस घटना को कई दिन बीत गये लेकिन सूर्य मंदिर को लेकर लोग आज भी जिज्ञासु है कि आखिर सूर्य मंदिर यदि है भी तो कहाँ.........! मैं गांव वालो की भलाई के लिए मंदिर की लोकेशन तो नहीं बता सकता लेकिन यह बात दावे के साथ कह सकता हँू कि इस क्षेत्र में किसी न किसी पहाड़ी पर वह  स्थान जरूर है जहां भगवान भास्कर आज भी एक पल के लिए अपने रथ पर बैठने के लिए आते है. आज भले ही रथ न हो पर भगवान और भक्त की बेमिसाल बने इस सूर्य मंदिर का रहस्य कई और भी रहस्यो पर से पर्दा हटा सकता है.
इति,
रामकिशोर पंवार
पत्रकार - लेखक - कहानीकार
खंजनपुर बैतूल मध्यप्रदेश   मो. 9993162080
नोट :- कहानी का किसी भी जीवित या मृत व्यक्ति से कोई सबंध नहीं है. 

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